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Friday, December 21, 2018

तुम्हारा चेहरा और मेरी खुशी

हर सुबह बस एक ही ख्वाहिश होती थी कि तुम्हारा चेहरा दिख जाए, पता नहीं उस आम से चेहरे में ऐसा क्या खास था कि उसे देखकर जब भी घर के बाहर निकलता था तो पूरा दिन अच्छा हो जाता था। सुबह उठते ही बिना काजल वाली तुम्हारी मासूम सी आंखों में मानों पूरी दुनिया दिख जाती थी, तुम्हारे बालों की वे लटें जो कभी तुम्हारे चेहरे को ढककर तुम्हारे नूरानी चेहरे को मुझसे छिपाने की कोशिश ऐसे करती थीं, मानो किसी ने उनसे शर्त लगाई हो कि आज तुम इस चेहरे को मेरे सामने आने से रोकोगी।

कोई श्रंगार नहीं होता था, तुम्हें श्रंगार की जरूरत ही क्या थी, तुम्हारे होठों की मुस्कान ही काफी थी, जो न सिर्फ तुम्हारे चेहरे की खूबसूरती बना देती थी, बल्कि मुझे भी दिनभर की खुशी दे जाती थी। आखिर क्या चाहता था मैं, बस इसी मुस्कान को तो हमेशा के लिए तुम्हारे होठों पर रखना चाहता था, कभी खुद को हराकर तुमको जिता देता था तो कभी तुमको हराना मजबूरी बन जाता था। शायद तुम्हें हारना अच्छा न लगता हो लेकिन यकीन मानो तुम्हारी हार से ज्यादा भी मेरे लिए कुछ था, तुम्हारी मुस्कान... वह मुस्कान उस हार के बाद होने वाले 'अप्रत्याशित लाभ' से ही देखने को मिलती थी।

पर क्या हुआ था उसदिन, क्या तुम एक बार फिर मुझे खोना चाहती थी? कभी सोचा है कि अगर उसदिन तुम मुझे खो देती तो क्या होता? कभी सोचा है कि उन सपनों का क्या होता, जो हमने साथ मिलकर देखे थे, जिन्हें हम पूरा करना चाहते थे? विवशतापूर्ण जीवन क्यों जी रहे थे हम, क्यों अपनी जिंदगी के फैसले लेने से पहले अब अपने बारे में नहीं सोच रहे थे? ऐसे सैकड़ों सवाल हर दिन जिंदा होते हैं और फिर उत्तरविहीन होने की वजह से मैं उन सवालों की हत्या कर देता हूं... और कुछ करने लायक तुमने छोड़ा भी कहां था...

Friday, November 2, 2018

एक रिश्ता, जिसका प्रायश्चित कर रहा हूं

इंतजार, एक ऐसी चीज जिससे मैं सबसे ज्यादा नफरत करता हूं लेकिन एक दौर ऐसा भी आया जब इंतजार के बाद मिलने वाले 'फल' की वजह से इंतजार से भी मोहब्बत हो गई। सिर्फ तुम ही तो थी जिसके लिए अपनी क्लास खत्म होने के बाद कॉलेज के गेट पर खड़ा रहता था, तुम ही तो थी जिसके लिए कहीं तुम जल्दी न निकल जाओ, इस डर से चौराहे पर एक घंटे पहले ही आकर खड़ा हो जाता था, तुम ही तो थी जिसके एक मेसेज के इंतजार में रात में साइलेंट फोन पर नजरें टिकाए रहता था कि कहीं तुरंत मेसेज नहीं देख पाया तो तुम्हारे घर वाला फोन तुमसे दूर हो जाएगा और हम 'एसएमएस चैट' नहीं कर पाएंगे।

मेरे 'कोड हॉर्न' की आवाज सुनने के इंतजार में ड्राइंग रूम में खिड़की के पास बैठना तो तुम्हें भी अच्छा लगता था ना, आखिर उसी को सुनकर तो तुम छत पर आती थी। तुम्हारी रूठी हुई आंखों में भी इंतजार होता था कि कब मैं तुम्हें मनाने आऊं, और मैं तुम्हारी नाराजगी से सुर्ख लाल होते चेहरे को देखने के लिए थोड़ा और इंतजार करवा देता था।

पर देखो ना, अब मुझे फिर से इंतजार बुरा लगने लगा है क्योंकि सालों तक तुम्हारा इंतजार करते-करते एक ऐसे रिश्ते का सच जान गया, जो पूर्ण होते हुए भी अपूर्ण था। उस पूर्ण से लगने वाले अपूर्ण रिश्ते में इंतजार के दौरान सुबह एक उम्मीद शुरू होती थी और देर रात वह घाव की तरह अनवरत चलने वाला दर्द दे जाती थी। वे स्वप्न शर्मिंदा हो रहे थे जो मां भगवती के मंदिर में हमने एक साथ देखे थे। और अंत में इस बेनाम और अधूरे रिश्ते का प्रायश्चित करना मेरे हिस्से में आया और वह प्रायश्चित था, एक अंतहीन इंतजार...

वह आखिरी छुअन

जरूरी नहीं कि प्यार में हर रिश्ते को कोई नाम दिया जाए, दूसरे शब्दों में कहें तो हर एक रिश्ते में प्यार हो सकता है और बिना रिश्ते के भी प्यार हो सकता है। लेकिन 'हम' तो हमारे प्यार को एक रिश्ते का नाम देना चाहते थे ना! जैसे ईश्वर को चाहता था, वैसे ही तुम्हें भी और जैसे ईश्वर से तुम्हें मांगता था, वैसे ही तुमसे भी तुम्हें मांगता था, यह जानते हुए कि सिर्फ पाने को प्यार नहीं कहते, मैं तुम्हें पाना चाहता था। और आखिरकार पा लिया तुम्हें, हमारी आत्मा का वह मिलन, ऐसा लगा था कि जैसे प्रीत की कोई अल्पना सी सज गई है, ऐसा लगा था जैसे स्याह रात में रोशनी हो गई है। निष्पाप और निश्छल भावनाओं के साथ की वह छुअन अलैकिक थी। तुम्हारे हाथ की उस अंगूठी को छूने के बहाने उस प्रथम स्पर्श में ऐसा लगा था जैसे स्पर्श त्वचा का नहीं, हृदय का है।

लेकिन अपनी आखिरी मुलाकात में सब बदला-बदला सा था। जाते-जाते जब तुमने हाथ मिलाया तो लगा जैसे हमारी आत्माएं एक-दूसरे से अलग हो रही हैं, हमारे दिल दूर जा रहे हैं। अकारण हुए उस दिव्य प्रेम में जो कुछ था, सब इंद्रियों से परे था। लेकिन उस अंतिम मुलाकात में इंद्रीय स्पर्श को महसूस किया था मैंने। न हाथों में वह गर्माहट थी और ना ही पुरानी गर्मजोशी।

मेरी आंखों में देखकर पहले तुम सब समझ जाती थी, लेकिन उसदिन तो मेरे कहने के बावजूद भी नहीं समझी कि मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। पहली छुअन के समय जो घबराहट था, वह शायद अब बेबसी बन चुकी थी। कभी स्पर्श मात्र से मोम से पिघल जाने वाली वह लड़की उसदिन पत्थर सी लग रही थी और पत्थरों का मैं क्या करता। चले जाना मजबूरी थी, पत्थर को ईश्वर समझकर पूज भी नहीं सकता था क्योंकि ईश्वर तो हृदय में वास करता है, और तुम तो उस हृदय को ठोकर मारकर चली गई थी, आखिर अफने ईश्वर का अपमान कैसे बर्दाश्त करता मैं
#क्वीन

Wednesday, October 31, 2018

वह मुलाकात

आंखों से बात करने की वह दोतरफा कोशिश, बेहद अजीब सा लग रहा था हम दोनों को... बाद में तुम्हीं ने तो बताया था कि तुम कुछ और ही समझ रही थी मुझे लेकिन फिर भी बात करना चाहती थी और मैं इस उधेड़बुन में लगा था कि कहीं अगर मेरे बात करने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो मेरे 'ईगो' का क्या होगा... उस मुलाकात में ऐसा लगा था जैसे हमारा कोई पुराना रिश्ता है, एक ऐसा रिश्ता जो शायद कभी अधूरा रहा हो और अब इस पड़ाव पर वह खुद को पूर्णता के शिखर पर देखना चाहता हो।

इसे ईश्वर पर विश्वास कहो या कुछ और, जीवन में सबकुछ कार्य-कारण सिद्धांत से जुड़ा होता है, कुछ भी अकारण नहीं होता, हमारी मुलाकात भी अकारण नहीं हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे खुद से मिलकर, खुद में ही खो गए हों हम। लेकिन मिलन का सुख पाना इतना आसान तो नहीं होता। छिप-छिपकर एक-दूसरे को देखना और अगर नजरें मिल जाएं तो लज्जा में नजरें झुका लेना। कितना खूबसूरत था ना वह समय...

चंद लम्हों में तब हम पूरी जिंदगी जी लेते थे। इंतजार होता था कि कब दिखोगी तुम, सिर्फ तुम्हारे लिए ही तो क्लास में जाता था, नहीं तो असल पढ़ाई तो दोस्तों के साथ चौराहों पर ही होती थी। एक जुनून था, जिसकी वजह से सुकून खत्म सा हो गया था और उसी जुनून में पता नहीं कितने साल बिता दिए, साथ बिताए गए लम्हों को याद करके कविताएं लिखीं, एक पूरी किताब लिख डाली और लिखते-लिखते बस यही सोचता था कि क्या जो लिख रहा हूं, वह सब तुम्हें अपने सामने बैठाकर सुना पाउंगा....
#क्वीन

अपनी पहली डेट

क्लास खत्म होने के बाद उस रेस्तरां में पहली बार गए थे हम, अपनी पहली 'डेट' पर... ऑर्डर करने का नंबर आया तो तुमने तो पानी से ही काम चलाने का फैसला सुनाया और मुझे यह कहकर फंसा दिया कि जो अपने लिए ऑर्डर करोगे, उसी में शेयर कर लूंगी। क्या ऑर्डर करूँ? यही सवाल परेशान कर रहा था, अपने साथ में आई उस 'मेसेंजर' कम दोस्त ने तो सामने पड़ोस की टेबल पर कब्जा करके झट से नूडल्स ऑर्डर कर दीं। आखिरकार तीसरी बार वह वेटर भविष्य के सुनहरे स्वप्नों में खोए चित्त को झकझोरते हुए 'विघ्नप्रणेता' के रूप में प्रकट हुआ।

'सर, क्या लाऊं?'
'भाई, कुछ मत लाओ, बस थोड़ी देर सुकून से बैठने दो।' यही कहना चाहता था मैं पर नहीं कह पाया और बिना कुछ सोचे मसाला डोसा ऑर्डर कर दिया। बिना शब्दों की बातें हो रही थीं तभी हमारा ऑर्डर आ गया और मैं फिर एक बार खुद की किस्मत पर सम्मोहित होने लगा कि तुम हमारी पहली डेट में ही कुछ 'शेयर' करने वाली हो। खैर हमने डोसा खाया और अर्थहीन सवाल-जवाब के साथ 'डेट' पूरी की।

फिर 41 बार हम उसी जगह पर गए और डोसा ही खाया। पता नहीं कैसा स्वाद था उसका, स्वाद से फर्क भी किसे पड़ता था। हम तो बस एक-दूसरे में खोने के लिए वहां जाते थे, ताकि क्लास के उस तथाकथित दायरे से बाहर निकल कर खुद को जी सकें। तुम दूर गई तो 'डोसा' भी दूर चला गया।

2 महीने पहले फिर से डोसा खाया, मैसूर का डोसा... उसमें स्वाद था, लेकिन उसे खाकर रेस्तरां से बाहर निकलने की जल्दी थी। पहले यह जल्दबाजी नहीं होती थी और वही चीज असल मजा देती थी....
#क्वीन

Saturday, October 27, 2018

करवाचौथ और तुम

करवाचौथ है आज, तुम सुबह से बिना पानी पिए चांद का इंतजार कर रही थी और देखो ना चांद तो दिख गया लेकिन तुम चुपचाप कमरे में जाकर बैठ गई। पिछले आठ सालों में 6 बार हम दोनों साथ उपवास पर थे। शादी के वाले साल में भी हम दोनों साथ ही थे, लेकिन देखो ना इस बार मैं ऑफिस में हूं और तुम शनिवार को रखे गए व्रत को रविवार को तोड़ोगी। खैर, मामला सिर्फ जिम्मेदारियों का है, यहां भी और वहां भी...

याद है तुम्हें शादी से पहले मैं रात में तुम्हारे घर के बाहर आता था और तुम चुपके से नीचे आकर मेरे हाथों से दादी के हाथों की बनी खीर खाती थी। आज वह खीर तो बनी होगी लेकिन तुम्हें अपने हाथों से खिलाने के लिए मैं नहीं हूं। तुम नाराज नहीं हो, लेकिन मैं हूं, खुद से कि इस मौके पर तुम्हारे पास नहीं हूं।

आज अनायास ही वह करवाचौथ याद आ गया जब तुम मेरे जीवन में नहीं थी, लेकिन फिर भी मैं चांद का इंतजार कर रहा था। जिसके लिए उपवास रखा था, उसे तो आज तक पता नहीं है लेकिन फिर भी बस यूं ही रख लिया था... तीन घंटे कोचिंग के बहाने उसके घर के नीचे खड़ा रहा था कि कम से कम उसकी मां जब चांद देखने आएंगी तो वह भी साथ में आएगी और मुझे मेरे चांद का दीदार हो जाएगा लेकिन वह नहीं दिखी... अगले दिन कॉलेज में उसे देखने के बाद ही समोसे के साथ चाय पी थी। क्या बचपना था यार... लेकिन बेहतरीन था वह सब भी...
खैर, आता हूं और अगली बार साथ रहने का वादा भी करता हूं....
#क्वीन

Thursday, October 25, 2018

इसलिए तुम्हारी जगह किसी और को दी

लगा था कि गणनायक की कृपा से मिलन हुआ है हमारा। तुम्हारी कांति का कायल था मैं। तुम्हारी अधमता को समझ ही नहीं पाया। तुम्हारे प्रेम में यूं खोया कि तुम्हारे और मेरे बीच वसन के अतिरिक्त कुछ न बचा। यह सामान्य तो नहीं था...

कौन्तेय की भांति मैं भी अपना वचन निभाने में सक्षम था किंतु तुमने तो साथ चलने का साहस ही न दिखाया। अदम्यता से परिपूर्ण गौरव को तुम्हारी कथित लाचारी एवं उसके अहंकार ने हरा दिया। प्रेम की ऊर्मि आखिर निढाल हो गई। आख़िर कब तक करता इंतजार? कब तक घर के चक्कर लगाता, कब तक बेवजह तुम्हारे पापा के नंबर पर फोन करता, कब तक एक बार चेहरा देखने की उम्मीद लिए चौराहे पर खड़ा रहता, कब तक बेउम्मीद होकर मरने और मारने की तरकीबें सोचता, कब तक उनसे नजरें चुराता जिनको तुम्हारे साथ सात फेरे लेने के वचन दिए थे? हरा दिया था तुमने मुझे, तुम्हारे मासूम चेहरे के पीछे छिपे उस गैरजिम्मेदाराना अनुबंध ने संबंध समाप्त करने पर विवश कर दिया। अगर वह ना आती तो पूर्ण रूप से निरंकुश हो जाता मैं, और फिर कोई न रोक पाता...

हो सकता है कि तुमको लगता हो कि अगर मेरा प्यार सच्चा था तो तुम्हारे दूर जाने के बाद मैंने किसी और से संबंध क्यों जोड़ा? सवाल जायज है लेकिन प्यार दोतरफा, शाश्वत एवं विवेकसम्पन्न होता तो मुझे कभी फिर से आकर्षण नहीं होता। वादे के मुताबिक, 3 साल तक लोग तुम्हें प्यार करते रहे, कामना करते रहे कि उन्हें हमारे जैसा प्यार मिले लेकिन मैं नहीं चाहता कि किसी का प्यार हमारी तरह हो... जिसमें सिर्फ धोखा, बेवफाई और असि की भांति घाव देने की क्षमता हो...
#क्वीन #पुरानी_कहानी

तुम दूर गई तो नफरत बढ़ी, प्यार नहीं...

कहते हैं कि आप जिससे प्यार करते हो, अगर वह दूर जाए तो प्यार बढ़ता जाता है लेकिन यह सत्य नहीं है। जब से तुम दूर गई हो, तब से तो हर दिन, हर पल तुम्हारे लिए नफरत बढ़ती ही जा रही है। प्रेम की वैजयंती लहराने के लिए मधुमास का आगमन होता उससे पहले ही प्रेम कैवल्य को प्राप्त हो गया।

मृगांक की रोशनी में तुम्हारे उपवास का पारायण कराने का स्वप्न अन्तक के मुख में विलीन हो गया। अब जितनी बार भी तुम मेरे सामने आती हो, ईश्वर का धन्यवाद देता हूँ कि तुम्हारी रम्यता के मोहपाश से बच गया। वृष्टि के बीच मेरे नयनों से होने वाली वर्षण किसी को नहीं दिखी,लेकिन आज तुमसे दूरी बनाने की वजह से चेहरे पर अद्भुत द्युति छा गई है।

प्रथम प्रयास को अंतिम लक्ष्य मान लिया था लेकिन भूल गया था कि पहली बार में कोई पूर्ण दक्ष नहीं हो जाता। अनुभव की पाठशाला ने बहुत कुछ दे दिया, दूसरी बार जब मन में प्रेम का आविर्भाव हुआ तो मैं पारंगत हो चुका था, उसे सहेजकर रखने में। देखो ना, आज वेदना एवं प्रेम के संयुक्त भाव को शब्द देकर मृगमद की भांति महकने लगा हूँ। अगर यह सब ना होता तो शायद मां वाग्देवी की कृपा न बरसती।
#क्वीन #पुरानी_कहानी

Saturday, October 13, 2018

और फिर मिल गई तुम

सात वर्षों के बाद कोई ऐसा दिख जाए जिसके न 'देखने' के विवशतापूर्ण अवांछित प्रण ने एक समय में आपकी जिजीविषा को ही समाप्त कर दिया हो तो आपको कैसा लगेगा?

आज लगा कि प्रारब्ध पर तो किसी का वश नहीं चलता, वह अक्षुण्ण होता है, नैसर्गिक होता है... अंतर्मन के शाश्वत समागम तथा समेकित उन्नयन के बाद विश्लेष्य प्रेम के भग्नावशेषों के संवर्ग में लगा रहा और वह प्रेम के निर्वाण में प्रगल्भता के साथ लगे रहे। मैं यत्किंचित सुमुत्सुक था कि जीवनचक्र के पूर्ण होने से काफी पहले मुझे ईश्वर ने एक उपहार दिया है लेकिन प्रेम के वात्याचक्र में फंसकर इतना कमजोर हो गया कि उस चेहरे के निर्निमेष से फुर्सत ही नहीं मिली।

मैं अनवरत बढ़ता जा रहा था, बिना किसी इष्टि के... लोभविष्ट नहीं था मैं, चित्तात्मा से समर्पित था। लेकिन 'फिर भी क्यों?'... और इस 'फिर भी क्यों?' का जवाब खोजते-खोजते वर्षों बीत गए और जब वह सामने आए तो दृष्टि नीचे करने के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं था...
#क्वीन