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Sunday, August 21, 2016

'अपनी' कैद में था मैं

मेरी तमन्ना एक ऐसे सफर की थी जिसमें तुम्हारा साथ हो और इस तमन्ना का सबसे खूबसूरत हिस्सा यह था कि मैं मंजिल भी तुम्हें ही मानता था। लेकिन स्वप्नलोक की इस तमन्ना का यथार्थ से कोई लकेना देना नहीं होता... काश यह बात मैं पहले ही समझ पाता। तो क्या हुआ कि हमारी पूजा पद्धति अलग थी, मैं जानता हूं कि तुम बिलकुल मेरे जैसी थी। तुम्हें पता था कि कोई काफिर किसी मस्जिद में नहीं जा सकता तो फिर तुम ही मेरे साथ मंदिर चली जाया करती थी....

तुम्हारे लिए मैं पूरी दुनिया से लड़ सकता था, लेकिन फिर भी तुम्हें 'आज़ाद' करना पड़ा.... काश! तुम मोहब्बत की इंतहा को समझ पाती….काश! तुम कभी समझ पाती कि मोहब्बत इतनी आगे बढ़ चुकी है कि वह मेरी आराधना बन गई है.. काश! तुम कभी समझ पाती कि जिससे प्रेम हो जाता है उसे अपनी सांसों तक में भी महसूस किया जाने लगता है... लेकिन फिर सोचता हूं कि आजादी तो हर एक का अधिकार है... बस उसी 'अधिकार' के लिए खुद को, खुद की कैद से आज़ाद कर दिया...