उन सूनसान राहों में बिना किसी परिभाषित रिश्ते के हम चलते रहते थे, हम अपने वे बातें एक-दूसरे को बताते थे जो हम किसी से नहीं कह पाते थे। उन बातों के दौरान मन में नए स्वप्न जन्म लेने लगे थे... कोई कमी, कोई बुराई नहीं थी तुममें... तुम्हारी हर एक अदा, तुम्हारी हर एक बात खूबी ही लगती थी... मैं जानता था कि मैं दिल में उसे बसा रहा हूं जो कभी मेरी जिंदगी में बस नहीं सकती। इस एक परिचित और शाश्वत डर के अलावा मेरे तब तक के जीवन में कोई डर नहीं था।
रात के अंधेरे में अकेले बैठकर उस रिश्ते का नाम सोचता था जो हमारे बीच कभी बना ही नहीं था। उस अपरिभाषित रिश्ते को नाम देने की यात्रा में खो चुका था मैं... सच है कि तुम मेरी नहीं थी लेकिन इस सच के सहारे साथ बिताए गए पलों को स्वप्न मान लेना भी तो ठीक नहीं था।
हमारी हर मुलाकात में होने वाली बातें हमारे एक होने का अहसास कराती थीं लेकिन जिस तरह से रेलगाड़ी के चलने के लिए दो पटरियों के बीच एक निश्चित दूरी का होना जरूरी होता है, उसी तरह से हमें हमारी जिन्दगी को नए आयाम देने के लिए एक दूरी बनाकर चलनी ही थी। अगर हम वह दूरी बनाकर न चलते तो हमारे सपने यथार्थ की पटरियों से उतर जाते.... तुम्हारे करीब आना गवारा नहीं था और बिछड़कर गुजारा भी नहीं था। हमारी मोहब्बत एक ऐसी मझधार में फंस चुकी थी जिसका कोई किनारा तक नहीं था। सब कुछ याद है मुझे... तुम्हारे साथ चलते वक्त पैरों में चुभे वे कांटे उन लम्हों को भूलने भी नहीं देते....