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Wednesday, November 16, 2016

तुम्हारी बातें और मेरे स्वप्न

उन सूनसान राहों में बिना किसी परिभाषित रिश्ते के हम चलते रहते थे, हम अपने वे बातें एक-दूसरे को बताते थे जो हम किसी से नहीं कह पाते थे। उन बातों के दौरान मन में नए स्वप्न जन्म लेने लगे थे... कोई कमी, कोई बुराई नहीं थी तुममें... तुम्हारी हर एक अदा, तुम्हारी हर एक बात खूबी ही लगती थी... मैं जानता था कि मैं दिल में उसे बसा रहा हूं जो कभी मेरी जिंदगी में बस नहीं सकती। इस एक परिचित और शाश्वत डर के अलावा मेरे तब तक के जीवन में कोई डर नहीं था। 

रात के अंधेरे में अकेले बैठकर उस रिश्ते का नाम सोचता था जो हमारे बीच कभी बना ही नहीं था। उस अपरिभाषित रिश्ते को नाम देने की यात्रा में खो चुका था मैं... सच है कि तुम मेरी नहीं थी लेकिन इस सच के सहारे साथ बिताए गए पलों को स्वप्न मान लेना भी तो ठीक नहीं था। 

हमारी हर मुलाकात में होने वाली बातें हमारे एक होने का अहसास कराती थीं लेकिन जिस तरह से रेलगाड़ी के चलने के लिए दो पटरियों के बीच एक निश्चित दूरी का होना जरूरी होता है, उसी तरह से हमें हमारी जिन्दगी को नए आयाम देने के लिए एक दूरी बनाकर चलनी ही थी। अगर हम वह दूरी बनाकर न चलते तो हमारे सपने यथार्थ की पटरियों से उतर जाते.... तुम्हारे करीब आना गवारा नहीं था और बिछड़कर गुजारा भी नहीं था। हमारी मोहब्बत एक ऐसी मझधार में फंस चुकी थी जिसका कोई किनारा तक नहीं था। सब कुछ याद है मुझे... तुम्हारे साथ चलते वक्त पैरों में चुभे वे कांटे उन लम्हों को भूलने भी नहीं देते....

मैं जीतता तो मोहब्बत हार जाती

मैं टकटकी लगाए तुम्हारे दिल की गहराईयों से निकली वे बातें सुन रहा था। कभी तुम्हारी आंखे नम हो जाती थीं तो कभी उसी चेहरे पर मुस्कुराहट तैर जाती थी। तुम्हारी वे दिलकश बातें सुनकर बीच-बीच में मेरी भी आंखे नम हो जाती थीं। तुम जिस अन्दाज़ में अपना किस्सा सुना रही थी, वह मंजर मुझे देखा हुआ सा लगने लग रहा था। तुम तो सिर्फ मेरी कॉलेज फ्रेंड थी ना? फिर क्यूं मुझे वे सारी बातें सुनाती थी? क्यों अपने दर्द, अपनी खुशियों में मुझे शामिल करने की कोशिश करती थी? क्यों मेरे दर्द में मुझे सहारा देती थी, क्यों अपने दर्द में मेरे कंधे पर सिर रखकर रोती थी?

तुम्हारे इसी व्यवहार की वजह से रात-दिन, सुबह-शाम मैं बस तुम्हारे ही ख्याल में खोया रहता था। मैं हकीकत में क्या कर रहा हूं, इस सवाल का जवाब मैं खुद नहीं खोज पा रहा था। खाना खाने से लेकर पढ़ाई करने तक, मुझे कुछ ध्यान या याद नहीं रहता था। जो काम मुझे सबसे ज्यादा पसंद था, उसमें भी मन लगना बंद हो गया था। अपनी पसंद का खाना बोझ लगने लगा था। बस इतनी सी तमन्ना थी कि कॉलेज में किसी तरह तुम्हारी एक झलक दिख जाए। तुम्हारे गुलाबी होठों से अपने नाम को सुनने की तमन्ना रहती थी। 

पता नहीं कि तुम यह सब समझती भी थी या नहीं। लेकिन इतना जरूर है कि इन सबके बीच मैं खुद से एक लड़ाई लड़ने लगा था। अपने आप से अपने अस्तित्व की लड़ाई... एक ऐसी लड़ाई जिसे मैं जीतना नहीं चाहता था... क्योंकि अगर उस लड़ाई में मैं जीत जाता तो मेरी मोहब्बत हार जाती और मैं मेरी नजरों के सामने अपनी मोहब्बत को हारते हुए नहीं देख सकता था... और देखो, उस हार का परिणाम क्या हुआ... अपने अस्तित्व की लड़ाई को हारने के बावजूद मैंने तुम्हारा अस्तित्व 'गढ़' दिया.... एक ऐसा अस्तित्व जिसका कभी विनाश नहीं हो सकता... एक ऐसा अस्तित्व जिसमें लोग अपनी मोहब्बत का अश्क देखते हैं....

तुम्हारी अजमाइश का भ्रमर जाल

एक बाग में एक फूल पर एक भंवरा और एक तितली दोनों एक साथ बैठते थे। कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे से मोहब्बत करने लगे। वक्त के साथ उनकी मोहब्बत इतनी गहरी हो गई की अगर उनमें से एक को दूसरा दिखाई नहीं देता तो पहला बेचैन होने लगता था। एक दिन तितली ने भंवरे से कहा कि वह उ से जितना प्यार करती है, भंवरा उस से उतना प्यार नहीं करता। इस बात को लेकर दोनों में शर्त लग गयी कि जो ज्यादा प्यार करता है वह कल सुबह इस फूल पर पहले आकर बैठेगा। शाम को इस शर्त के साथ दोनों अपने अपने घर चले गए।

जबरदस्त ठण्ड होने के बावजूद भी अगले दिन सुबह जल्दी ही तितली फूल पर आकर बैठ गई। लेकिन भंवरा अभी तक नहीं आया था। तितली बहुत खुश थी क्योंकि वह शर्त जीत चुकी थी। कुछ देर बाद जैसे ही धूप से फूल खिला। तो तितली ने देखा कि भंवरा फूल के अन्दर मरा पड़ा है। (क्योंकि की वह शाम को घर गया ही नहीं था और रात को ठण्ड से मर गया)...

कुछ ऐसी ही कहानी हमारी भी थी। तुम मुझे अजमाती जा रही थी लेकिन तुम यह भूल गई कि मोहब्बत में अजमाने जैसा कुछ नहीं होता। तुम्हारी 'अजमाइश' के भ्रमर जाल में फंसा तो मैं था लेकिन हारी तुम थी...