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Friday, October 28, 2016

तुम्हारी मोहब्बत की कैद में दिवाली

दिवाली से दो दिन पहले यानी धनतेरस के दिन तुम अपने मामा जी के घर चली गई थी। हमारी मोहब्बत का बीज जब वृक्ष रूप ले रहा था, उस दौर की हमारी पहली दिवाली थी। मैं चाहता था कि पूजा के बाद सबसे पहले मैं तुम्हारा चेहरा देखूं। लेकिन तुम नहीं मानी और चली गयी अपने मामा जी के घर।

हार और अहंकार, इन दो शब्दों का बेहद अटूट रिश्ता है। मुझे भी इस बात का अहंकार था कि मैं कभी हार नहीं सकता। आखिर अहंकार हो भी क्यों ना, कभी हार का स्वाद ही नहीं चखा था। बस तुम्हारी मोहब्बत और अपने अहंकार के मायाजाल में फंसकर अपनी बुआ जी के घर पहुँच गया। उनका घर, तुम्हारे मामा जी के घर से बस 2 किलोमीटर की दूरी पर था। पूजा के बाद तुम्हारे मामा जी के लैंडलाइन नंबर पर 17 बार अलग-अलग नाम से फोन किया, लेकिन किसी ने हमारी बात नहीं कराई। सबने यही कहा कि तुम घर के बाहर पटाखे जला रही हो।
मैं भी पागल, पहुँच गया तुम्हारे मामा जी के घर। सोचा था कि जिस वजह से घर से दूर आया हूँ, कम से कम वह तो मुकम्मल हो जाए। लेकिन.....

बस इसी 'लेकिन' पर तो सारी कहानियां चरित्रहीन हो जाती हैं...रात 11 बजे से 1:50 बजे तक तुम्हारे घर के बाहर खड़ा रहा, लेकिन तुम नहीं दिखी। उस दिन पहली बार मुझे मेरा विश्वास, 'अहंकार' लगा था और उसी दिन पहली बार दिवाली बिना पटाखों के मनाई थी। आज इतने सालों के बाद इस दीवाली को बिना पटाखों के मनाऊँगा। लेकिन इस बार तुम्हारे बारे में नहीं बल्कि उन परिवारों के बारे में सोच रहा हूं जिनके बेटे का शव कुछ दिन पहले तिरंगे में लिपट कर घर पहुंचा। इस साल एक दीप उनके लिए भी जलाऊंगा जो सीमा पर इसलिए खड़े रहते हैं ताकि 'तुम' दिवाली मना सको।
#इस_दीवाली_एक_दीप_भारतीय_सेना_के_नाम
#क्वीन