सबसे ज्यादा पढ़ी गईं पोस्ट

Friday, November 2, 2018

एक रिश्ता, जिसका प्रायश्चित कर रहा हूं

इंतजार, एक ऐसी चीज जिससे मैं सबसे ज्यादा नफरत करता हूं लेकिन एक दौर ऐसा भी आया जब इंतजार के बाद मिलने वाले 'फल' की वजह से इंतजार से भी मोहब्बत हो गई। सिर्फ तुम ही तो थी जिसके लिए अपनी क्लास खत्म होने के बाद कॉलेज के गेट पर खड़ा रहता था, तुम ही तो थी जिसके लिए कहीं तुम जल्दी न निकल जाओ, इस डर से चौराहे पर एक घंटे पहले ही आकर खड़ा हो जाता था, तुम ही तो थी जिसके एक मेसेज के इंतजार में रात में साइलेंट फोन पर नजरें टिकाए रहता था कि कहीं तुरंत मेसेज नहीं देख पाया तो तुम्हारे घर वाला फोन तुमसे दूर हो जाएगा और हम 'एसएमएस चैट' नहीं कर पाएंगे।

मेरे 'कोड हॉर्न' की आवाज सुनने के इंतजार में ड्राइंग रूम में खिड़की के पास बैठना तो तुम्हें भी अच्छा लगता था ना, आखिर उसी को सुनकर तो तुम छत पर आती थी। तुम्हारी रूठी हुई आंखों में भी इंतजार होता था कि कब मैं तुम्हें मनाने आऊं, और मैं तुम्हारी नाराजगी से सुर्ख लाल होते चेहरे को देखने के लिए थोड़ा और इंतजार करवा देता था।

पर देखो ना, अब मुझे फिर से इंतजार बुरा लगने लगा है क्योंकि सालों तक तुम्हारा इंतजार करते-करते एक ऐसे रिश्ते का सच जान गया, जो पूर्ण होते हुए भी अपूर्ण था। उस पूर्ण से लगने वाले अपूर्ण रिश्ते में इंतजार के दौरान सुबह एक उम्मीद शुरू होती थी और देर रात वह घाव की तरह अनवरत चलने वाला दर्द दे जाती थी। वे स्वप्न शर्मिंदा हो रहे थे जो मां भगवती के मंदिर में हमने एक साथ देखे थे। और अंत में इस बेनाम और अधूरे रिश्ते का प्रायश्चित करना मेरे हिस्से में आया और वह प्रायश्चित था, एक अंतहीन इंतजार...

वह आखिरी छुअन

जरूरी नहीं कि प्यार में हर रिश्ते को कोई नाम दिया जाए, दूसरे शब्दों में कहें तो हर एक रिश्ते में प्यार हो सकता है और बिना रिश्ते के भी प्यार हो सकता है। लेकिन 'हम' तो हमारे प्यार को एक रिश्ते का नाम देना चाहते थे ना! जैसे ईश्वर को चाहता था, वैसे ही तुम्हें भी और जैसे ईश्वर से तुम्हें मांगता था, वैसे ही तुमसे भी तुम्हें मांगता था, यह जानते हुए कि सिर्फ पाने को प्यार नहीं कहते, मैं तुम्हें पाना चाहता था। और आखिरकार पा लिया तुम्हें, हमारी आत्मा का वह मिलन, ऐसा लगा था कि जैसे प्रीत की कोई अल्पना सी सज गई है, ऐसा लगा था जैसे स्याह रात में रोशनी हो गई है। निष्पाप और निश्छल भावनाओं के साथ की वह छुअन अलैकिक थी। तुम्हारे हाथ की उस अंगूठी को छूने के बहाने उस प्रथम स्पर्श में ऐसा लगा था जैसे स्पर्श त्वचा का नहीं, हृदय का है।

लेकिन अपनी आखिरी मुलाकात में सब बदला-बदला सा था। जाते-जाते जब तुमने हाथ मिलाया तो लगा जैसे हमारी आत्माएं एक-दूसरे से अलग हो रही हैं, हमारे दिल दूर जा रहे हैं। अकारण हुए उस दिव्य प्रेम में जो कुछ था, सब इंद्रियों से परे था। लेकिन उस अंतिम मुलाकात में इंद्रीय स्पर्श को महसूस किया था मैंने। न हाथों में वह गर्माहट थी और ना ही पुरानी गर्मजोशी।

मेरी आंखों में देखकर पहले तुम सब समझ जाती थी, लेकिन उसदिन तो मेरे कहने के बावजूद भी नहीं समझी कि मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूं। पहली छुअन के समय जो घबराहट था, वह शायद अब बेबसी बन चुकी थी। कभी स्पर्श मात्र से मोम से पिघल जाने वाली वह लड़की उसदिन पत्थर सी लग रही थी और पत्थरों का मैं क्या करता। चले जाना मजबूरी थी, पत्थर को ईश्वर समझकर पूज भी नहीं सकता था क्योंकि ईश्वर तो हृदय में वास करता है, और तुम तो उस हृदय को ठोकर मारकर चली गई थी, आखिर अफने ईश्वर का अपमान कैसे बर्दाश्त करता मैं
#क्वीन