कोई श्रंगार नहीं होता था, तुम्हें श्रंगार की जरूरत ही क्या थी, तुम्हारे होठों की मुस्कान ही काफी थी, जो न सिर्फ तुम्हारे चेहरे की खूबसूरती बना देती थी, बल्कि मुझे भी दिनभर की खुशी दे जाती थी। आखिर क्या चाहता था मैं, बस इसी मुस्कान को तो हमेशा के लिए तुम्हारे होठों पर रखना चाहता था, कभी खुद को हराकर तुमको जिता देता था तो कभी तुमको हराना मजबूरी बन जाता था। शायद तुम्हें हारना अच्छा न लगता हो लेकिन यकीन मानो तुम्हारी हार से ज्यादा भी मेरे लिए कुछ था, तुम्हारी मुस्कान... वह मुस्कान उस हार के बाद होने वाले 'अप्रत्याशित लाभ' से ही देखने को मिलती थी।
पर क्या हुआ था उसदिन, क्या तुम एक बार फिर मुझे खोना चाहती थी? कभी सोचा
है कि अगर उसदिन तुम मुझे खो देती तो क्या होता? कभी सोचा है कि उन सपनों
का क्या होता, जो हमने साथ मिलकर देखे थे, जिन्हें हम पूरा करना चाहते थे?
विवशतापूर्ण जीवन क्यों जी रहे थे हम, क्यों अपनी जिंदगी के फैसले लेने से
पहले अब अपने बारे में नहीं सोच रहे थे? ऐसे सैकड़ों सवाल हर दिन जिंदा
होते हैं और फिर उत्तरविहीन होने की वजह से मैं उन सवालों की हत्या कर देता
हूं... और कुछ करने लायक तुमने छोड़ा भी कहां था...