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Tuesday, December 13, 2016

वो सब मजबूरी नहीं था

तुम हमेशा कहती थी, 'तुमने दूसरों के लिए किया ही क्या है?' लेकिन मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं होता था। जब कॉलेज में पढ़ाई के दौरान छात्रों के लिए कुछ करने का मौका मिला तो हर दिन सुर्ख़ियों में रहता था। शाम 8 बजे की न्यूज़ में जब मेरी बाइट देखकर दोस्तों से लेकर प्रिंसिपल तक कहती थीं, 'तुम तो बड़े नेता हो गए।' तो मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती थी।
हर पल बस यही ख्याल आता था कि वो दो आँखें ये सब देख रही होंगी या नहीं, जिनकी बेरुखी ने मुझे ऐसा बना दिया। पुलिस की लाठियां खाने पर होने वाले दर्द के बाद निकलने वाली चीखों को वो सुन पाती होगी या नहीं, जिसकी प्रेरणा ने मुझे यह सब करने को मजबूर किया। तब वो सब मजबूरी था लेकिन समय बदला और फिर अहसास हुआ कि वह सब मजबूरी नहीं बल्कि मेरा दायित्व था और तुम्हारी भूमिका उसमें सिर्फ 'जामवंत' के रूप में थी।
शायद तुम्हें अहसास था कि मेरा 8 दिन का अनशन, मेरी लाठी खाने की क्षमता, मेरी सम्प्रेषणीयता, उस विश्वविद्यालय के राजा और उसकी सामंतवादी व्यवस्था का अहंकार तोड़ सकती है। तुमने मुझे मुझसे मिलाया और अब मैं तुम्हें वो पहचान दूंगा जिसकी तुम हक़दार हो, आखिर जिसने एक 'आवारा' गौरव को विश्व गौरव बनाया, उसे उसका 'अधिकार' तो मिलना चाहिए ना?
#क्वीन