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Saturday, October 13, 2018

और फिर मिल गई तुम

सात वर्षों के बाद कोई ऐसा दिख जाए जिसके न 'देखने' के विवशतापूर्ण अवांछित प्रण ने एक समय में आपकी जिजीविषा को ही समाप्त कर दिया हो तो आपको कैसा लगेगा?

आज लगा कि प्रारब्ध पर तो किसी का वश नहीं चलता, वह अक्षुण्ण होता है, नैसर्गिक होता है... अंतर्मन के शाश्वत समागम तथा समेकित उन्नयन के बाद विश्लेष्य प्रेम के भग्नावशेषों के संवर्ग में लगा रहा और वह प्रेम के निर्वाण में प्रगल्भता के साथ लगे रहे। मैं यत्किंचित सुमुत्सुक था कि जीवनचक्र के पूर्ण होने से काफी पहले मुझे ईश्वर ने एक उपहार दिया है लेकिन प्रेम के वात्याचक्र में फंसकर इतना कमजोर हो गया कि उस चेहरे के निर्निमेष से फुर्सत ही नहीं मिली।

मैं अनवरत बढ़ता जा रहा था, बिना किसी इष्टि के... लोभविष्ट नहीं था मैं, चित्तात्मा से समर्पित था। लेकिन 'फिर भी क्यों?'... और इस 'फिर भी क्यों?' का जवाब खोजते-खोजते वर्षों बीत गए और जब वह सामने आए तो दृष्टि नीचे करने के अतिरिक्त उनके पास कुछ नहीं था...
#क्वीन

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