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Wednesday, October 31, 2018

अपनी पहली डेट

क्लास खत्म होने के बाद उस रेस्तरां में पहली बार गए थे हम, अपनी पहली 'डेट' पर... ऑर्डर करने का नंबर आया तो तुमने तो पानी से ही काम चलाने का फैसला सुनाया और मुझे यह कहकर फंसा दिया कि जो अपने लिए ऑर्डर करोगे, उसी में शेयर कर लूंगी। क्या ऑर्डर करूँ? यही सवाल परेशान कर रहा था, अपने साथ में आई उस 'मेसेंजर' कम दोस्त ने तो सामने पड़ोस की टेबल पर कब्जा करके झट से नूडल्स ऑर्डर कर दीं। आखिरकार तीसरी बार वह वेटर भविष्य के सुनहरे स्वप्नों में खोए चित्त को झकझोरते हुए 'विघ्नप्रणेता' के रूप में प्रकट हुआ।

'सर, क्या लाऊं?'
'भाई, कुछ मत लाओ, बस थोड़ी देर सुकून से बैठने दो।' यही कहना चाहता था मैं पर नहीं कह पाया और बिना कुछ सोचे मसाला डोसा ऑर्डर कर दिया। बिना शब्दों की बातें हो रही थीं तभी हमारा ऑर्डर आ गया और मैं फिर एक बार खुद की किस्मत पर सम्मोहित होने लगा कि तुम हमारी पहली डेट में ही कुछ 'शेयर' करने वाली हो। खैर हमने डोसा खाया और अर्थहीन सवाल-जवाब के साथ 'डेट' पूरी की।

फिर 41 बार हम उसी जगह पर गए और डोसा ही खाया। पता नहीं कैसा स्वाद था उसका, स्वाद से फर्क भी किसे पड़ता था। हम तो बस एक-दूसरे में खोने के लिए वहां जाते थे, ताकि क्लास के उस तथाकथित दायरे से बाहर निकल कर खुद को जी सकें। तुम दूर गई तो 'डोसा' भी दूर चला गया।

2 महीने पहले फिर से डोसा खाया, मैसूर का डोसा... उसमें स्वाद था, लेकिन उसे खाकर रेस्तरां से बाहर निकलने की जल्दी थी। पहले यह जल्दबाजी नहीं होती थी और वही चीज असल मजा देती थी....
#क्वीन

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