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Saturday, January 9, 2021

तुमने मुझे मेरे लायक छोड़ा ही नहीं

 बहुत गुस्से में थी तुम उसदिन, बात तक करने को तैयार नहीं थी। गुस्सा किस पर था, ये महत्वपूर्ण नहीं थी, इंपॉर्टेंट ये था कि वो गुस्सा मुझपर उतर रहा था। हर शाम की तरह चाहता था कि घर जाने से पहले तुम एक बार मुझे तुम्हारी आंखों को ढक रहे बालों को हटाकर कानों के पीछे छिपा लेने दो... उफ्फ्फ्फ्.. तुम्हारा गुस्सा... तुमने साफ कह दिया था कि मेरी चीज को हाथ मत लगाना। पर मैं भी क्या करता, जन्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय और तुम्हारी 'सेवा' के लिए शूद्र रूप में अवतरित हुए इस व्यक्ति ने तुमसे बहुत कुछ सीखा था, तुम्हारे बेवजह के गुस्से को झेलने की ताकत देने वाली औषधि तुमने दी ही नहीं थी, थोड़ा गुस्सा मुझे भी आ गया और कह दिया कि अब किसी शाम पार्क में बैठकर कहना कभी कि तकिया (मेरी बांह) दे दो...


तुम पूछती थी ना कि मैं तुम्हें इतना प्यार क्यों करता हूं... क्योंकि तुमने मुझे मेरा रहने ही नहीं दिया था। याद है ना वो जवाब... 'वो तकिया तो मेरी ही है, जो तुम्हारा हो, वो मत देना'... तुमने जिस अधिकार के साथ उस वक्त वो कहा था ना, उसदिन के बाद से आज तक अपने शरीर का एक हिस्सा, अपने जीवन का एक पल, अपने मन से एख बिंदु... खुद की तलाश तक में न लगा पाया। कुछ नहीं बचा मेरा... 12 सालों से हर पल के एक हिस्से में तुम्हारे साथ बिताए वक्त को जीने की कोशिश करता हूं, तो अगले पर उसे भुलाने की... तुम में ही डूबकर रह गया हूं, खुद के लिए कुछ बचा ही नहीं...


अब जब कभी साथ बिताए उन लम्हों में अकेले होता हूं, तो बहुत सहज महसूस करता हूं, लगता है कि सबकुछ है... अकेलेपन में 'पितामह' जैसा महसूस करता हूं... लेकिन अब किसी को उन लम्हों में शामिल नहीं होने देना चाहता, कोई आने की कोशिश करता है तो बहुत असहज सा हो जाता हूं। पता है ये अहसास कैसा होता है? बिल्कुल वैसा ही, जब हॉस्टल में रहता था, अपने कमरे में सब अस्त-व्यस्त रहता था, लेकिन फिर भी नींद अपने कमरे में ही आती थी। पर उस कमरे में जब कोई अजनबी आ जाता था तो खुद के सबसे चहेते कमरे को देखकर खुद पर शर्म आ जाती थी... बिल्कुल वैसा ही अब महसूस करता हूं... 

मेरे लिखने से तुम डरती थी ना?

तुम नहीं चाहती थी कि मैं कुछ लिखूं, किसी से तुम्हारे बारे में बात करूं, उन खुशियों भरे पल के अहसास किसी और को बताऊं... तुमने खूब मना किया, इतना ज्यादा कि ऐसा लगने लगा जैसे 'लिखना', तुमसे जुड़ी बातें, तुम्हारे साथ बीते खुशनुमा लम्हें किसी से भी शेयर करना कोई अपराध हो। इश्क में सब ठीक लग रहा था, सब सही लग रहा था। लगता था कि तुम नहीं चाहती कि हमारी 'निजता' पर कोई आघात हो, शायद इसीलिए रोकती हो, पर असल वजह तो कुछ और ही थी ना?


तुम पहले से जानती थी ना कि अगर मैंने सबकुछ लिखने, या 'भावों' को शेयर करने की आदत डाल ली तो तुम जो मेरे तब के भविष्य में करने वाली थी, वो भी सबके सामने आ जाएगा? तुम डरती थी ना कि उन बेतुके बहानों को दुनिया कभी इश्क के 'एकत्व' में रुकावट नहीं मानेगी? तुम्हें डर था ना कि सहीं मेरे अक्षरों से निकला सच सारे झूठों को बेनकाब न कर दे? 


पर सुनो ना, अक्षर का अर्थ जानती हो तुम? अक्षर यानी जिसका कभी क्षरण न हो सके यानी परम् ब्रह्म परमात्मा और मैं कहता भी था ना कि मेरा प्रेम हमेशा यूं ही बना रहेगा, बिल्कुल ब्रह्म की तरह... अब ये अक्षर उस निर्गुण ब्रह्म को सगुण रूप दे रहे हैं। विश्वास मानो! सालों पहले दोपहर के तीन बजे किए गए उस वादे को पूरा करने के लिए सैकड़ों रातें 3 बजे का वक्त देखे बिना यूं ही आंसुओं संग बिता दी हैं...