याद हैं वे लॉकेबल डायरियां, जिन्हें हम कॉलेज में एक्सचेंज किया करते थे? हर रात हम दोनों अपने दिल की बातें उनमें लिखते थे और फिर सुबह कॉलेज में एक-दूसरे की डायरियां घर ले जाते थे... कितना अच्छा लगता था ना रात के अंधेरे में लिखी गई बातों को चढ़ते सूर्य के साथ पढ़ना... लगता था जैसे हम एक-दूसरे के सामने खड़े होकर अपने मन की बातें बता रहे हों... सुबह 7 बजे कॉलेज पहुंचकर सीढ़ियों पर तुम्हारे कदमों की आहट का इंतजार करना सांस लेने जितना जरूरी हो गया था।
अंग्रेजी की क्लास के दौरान जब तुम साइंस सेक्शन में आती थी तो मेरी निगाहें अपनी किताब से हटकर तुम पर ठहर जाती थीं। 40 मिनट की वह क्लास चंद पलों में सिमटती महसूस होती थी। उस लॉकेबल डायरी को जब मेरे पापा ने देखा तो उसका लॉक तोड़कर तुम्हारा नाम जानने की कोशिश की, लेकिन उन्हें नाकामयाबी ही मिली।
मेरी मोहब्बत चाहे तुम्हें 'आम' ही लगे लेकिन बिना नाम लिए तुम्हारा जिक्र करने का मेरा सलीका आज भी पहले की तरह ही बरकरार है, तुम्हें यह सलीका तो जरूर 'खास' लगता होगा। तुम्हारी उस फ्रेंड ने अगर मेरे घर पर तुम्हारा नाम ना बताया होता तो शायद आज वे भी तुम्हारे नाम से अनजान होते। पता नहीं अब उन्हें तुम्हारा नाम याद होगा भी या नहीं लेकिन मेरे दिल में तुम्हारे साथ बिताया गया हर एक पल 'लॉक' है, और उस लॉक की चाभी को भी अपनी मोहब्बत के समंदर में फेंक दिया है, जिससे कभी चाहकर भी उन लम्हों को खुद से दूर ना कर पाऊं....
#क्वीन
'क्वीन' कौन है? इस सवाल का जवाब तो मैं भी खोज रहा हूं। मैं तो बस इतना जानता हूं कि यह सामान्य को विशिष्ट बनाने का एक प्रयास है... कोई अलंकार नहीं... सिर्फ सच्ची भावनाएं... तुम थी तो सब कुछ था... तुम नहीं हो तो भी सब कुछ है....लेकिन तब वह 'सब कुछ' अच्छा लगता था लेकिन अब.... #क्वीन
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