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Wednesday, November 16, 2016

मैं जीतता तो मोहब्बत हार जाती

मैं टकटकी लगाए तुम्हारे दिल की गहराईयों से निकली वे बातें सुन रहा था। कभी तुम्हारी आंखे नम हो जाती थीं तो कभी उसी चेहरे पर मुस्कुराहट तैर जाती थी। तुम्हारी वे दिलकश बातें सुनकर बीच-बीच में मेरी भी आंखे नम हो जाती थीं। तुम जिस अन्दाज़ में अपना किस्सा सुना रही थी, वह मंजर मुझे देखा हुआ सा लगने लग रहा था। तुम तो सिर्फ मेरी कॉलेज फ्रेंड थी ना? फिर क्यूं मुझे वे सारी बातें सुनाती थी? क्यों अपने दर्द, अपनी खुशियों में मुझे शामिल करने की कोशिश करती थी? क्यों मेरे दर्द में मुझे सहारा देती थी, क्यों अपने दर्द में मेरे कंधे पर सिर रखकर रोती थी?

तुम्हारे इसी व्यवहार की वजह से रात-दिन, सुबह-शाम मैं बस तुम्हारे ही ख्याल में खोया रहता था। मैं हकीकत में क्या कर रहा हूं, इस सवाल का जवाब मैं खुद नहीं खोज पा रहा था। खाना खाने से लेकर पढ़ाई करने तक, मुझे कुछ ध्यान या याद नहीं रहता था। जो काम मुझे सबसे ज्यादा पसंद था, उसमें भी मन लगना बंद हो गया था। अपनी पसंद का खाना बोझ लगने लगा था। बस इतनी सी तमन्ना थी कि कॉलेज में किसी तरह तुम्हारी एक झलक दिख जाए। तुम्हारे गुलाबी होठों से अपने नाम को सुनने की तमन्ना रहती थी। 

पता नहीं कि तुम यह सब समझती भी थी या नहीं। लेकिन इतना जरूर है कि इन सबके बीच मैं खुद से एक लड़ाई लड़ने लगा था। अपने आप से अपने अस्तित्व की लड़ाई... एक ऐसी लड़ाई जिसे मैं जीतना नहीं चाहता था... क्योंकि अगर उस लड़ाई में मैं जीत जाता तो मेरी मोहब्बत हार जाती और मैं मेरी नजरों के सामने अपनी मोहब्बत को हारते हुए नहीं देख सकता था... और देखो, उस हार का परिणाम क्या हुआ... अपने अस्तित्व की लड़ाई को हारने के बावजूद मैंने तुम्हारा अस्तित्व 'गढ़' दिया.... एक ऐसा अस्तित्व जिसका कभी विनाश नहीं हो सकता... एक ऐसा अस्तित्व जिसमें लोग अपनी मोहब्बत का अश्क देखते हैं....

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