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Friday, September 2, 2016

मेरे स्वप्नलोक की वास्तविकता

तुम बस मेरे स्वप्नों में ही मेरी थी। यह बात समझने में मुझे 3 साल लग गए।  क्या करता, तुम्हारे हर एक झूठ को सच मानकर उसी में जिए जा रहा था।

तुमको पता है मेरी ज़िन्दगी के हर एक हिस्से में , हर एक किस्से में बस तुम्हारी ही कल्पना तो बसती थी। लेकिन तुम्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि मैं तो तुम्हारे लिए बस एक 'विकल्प' था। क्या करता मैं? क्या कर सकता था मैं?

अंत में तुम मजहबी बहाने बनाने लगी और मैं अपनी कल्पनाओं के समंदर में डूबने लगा। कल्पनाओं की अट्टालिका बनाने में मुझे कुछ वक़्त तो जरूर लगा लेकिन खुश हूँ कि उस अट्टालिका की नींव से लेकर अंतिम छोर तक तुम सिर्फ मेरी ही हो...

#क्वीन

उस दिन टूट गया था भ्रम

तुम्हारे साथ एक-एक पल बिताने का अहसास बेहद खास होता था। पहले तो ऐसा लगता था जैसे तुम भी मेरे साथ बिताए हर एक पल को दिल से जी लेना चाहती हो लेकिन बाद में महसूस हुआ कि यह मात्र मेरा भ्रम है। तुम्हारे प्रेम और समर्पण पर प्रश्नचिन्ह लगाने की क्षमता तो मुझमें नहीं है लेकिन ऐसा प्रारब्ध अवांछित था।

जीवन की सबसे आसान लड़ाई हार गया था मैं... और जानती हो दुःख यह नहीं है कि मैं वह लड़ाई हार गया बल्कि दुःख इस बात का है कि मैंने उस लड़ाई को लड़ा ही नहीं।तुमने अगर उस लड़ाई से पहले मेरा हाथ न छोड़ा होता तो मैं उस लड़ाई को लड़ जाता। और विश्वास मानो मैं वह लड़ाई जीत भी जाता। लेकिन जानता था बिना तुम्हारे उस जीत के मायने कुछ भी नहीं।

जब जंग अपनों से हो तो पीछे हट जाने में ही भलाई होती है और जब लड़ाई अपने आप से हो तो अपने अहंकार को कुचलकर विजय प्राप्त करने वाला ही तो पुरुषार्थी कहलाता है। तुम्हें हारकर खुद को जीत लिया था मैंने... लेकिन काश कि मैं तुमको भी जीत पाता... हमारी कहानी में इस काश की उपस्थिति कितनी अनिवार्य लगती है ना?
#क्वीन

सिर्फ 5 कदम की दूरी पर थी तुम

कभी कभी कुछ ऐसा ही जाता है जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती। अपने शहर से हजारों किलोमीटर दूर, समंदर के किनारे बने उस होटल से मंदिर से आने के बाद हम सब घूमने के लिए निकले। समंदर के किनारे जब मैं तुम्हारी मोहब्बत के स्वप्न में कैद था तब तुम अपने भाई के साथ मुझसे 5 कदम की दूरी पर बैठी थी। क्या तुम कल्पना कर सकती हो कि मैं उस समय कैसा महसूस कर रहा होऊंगा। जिस इंसान को मैं अपने स्वप्नों में भी कभी इतने पास नहीं ला पाया था, वह मेरे सामने था। तुम तो शायद मुझे जानती भी नहीं थी।

तुम्हारी एक-एक हरकत को देखते -देखते कब 3 घंटे बीत गए पता ही नहीं चला। और फिर जब तुम वहां से निकली तो मैं भी अपने भाई-बहन को जबरदस्ती वहां से चलने को कहने लगा। जिस होटल में मैं रुका था, तुम भी उसी के बाहर जाकर रुक गई, तुमने भी अपना डेरा वहीँ डाला था। और फिर अगले दिन तुम्हें 'नंदन-कानन' में देखा। फिर उसी शाम बीच पर....क्या कहता इसे? प्यार? नहीं...यह प्यार नहीं था... फिर क्या था?  ईश्वर की योजना... और कुछ नहीं कह सकते इसे....


उस दिन के 2 साल के बाद उसी बीच पर एक-दूसरे का हाथ थामकर समंदर के जल की निर्मलता और अपने प्रेम की पावनता के मधुर मिलन को महसूस करने के स्वप्न की अट्टालिका का ही तो निर्माण किया था हमने। पर एक सच यह भी है कि स्वप्नों की अट्टालिकाओं को ढहने में समय नहीं लगता....
#क्वीन