तुम नहीं चाहती थी कि मैं कुछ लिखूं, किसी से तुम्हारे बारे में बात करूं, उन खुशियों भरे पल के अहसास किसी और को बताऊं... तुमने खूब मना किया, इतना ज्यादा कि ऐसा लगने लगा जैसे 'लिखना', तुमसे जुड़ी बातें, तुम्हारे साथ बीते खुशनुमा लम्हें किसी से भी शेयर करना कोई अपराध हो। इश्क में सब ठीक लग रहा था, सब सही लग रहा था। लगता था कि तुम नहीं चाहती कि हमारी 'निजता' पर कोई आघात हो, शायद इसीलिए रोकती हो, पर असल वजह तो कुछ और ही थी ना?
तुम पहले से जानती थी ना कि अगर मैंने सबकुछ लिखने, या 'भावों' को शेयर करने की आदत डाल ली तो तुम जो मेरे तब के भविष्य में करने वाली थी, वो भी सबके सामने आ जाएगा? तुम डरती थी ना कि उन बेतुके बहानों को दुनिया कभी इश्क के 'एकत्व' में रुकावट नहीं मानेगी? तुम्हें डर था ना कि सहीं मेरे अक्षरों से निकला सच सारे झूठों को बेनकाब न कर दे?
पर सुनो ना, अक्षर का अर्थ जानती हो तुम? अक्षर यानी जिसका कभी क्षरण न हो सके यानी परम् ब्रह्म परमात्मा और मैं कहता भी था ना कि मेरा प्रेम हमेशा यूं ही बना रहेगा, बिल्कुल ब्रह्म की तरह... अब ये अक्षर उस निर्गुण ब्रह्म को सगुण रूप दे रहे हैं। विश्वास मानो! सालों पहले दोपहर के तीन बजे किए गए उस वादे को पूरा करने के लिए सैकड़ों रातें 3 बजे का वक्त देखे बिना यूं ही आंसुओं संग बिता दी हैं...
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