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Thursday, April 23, 2020

हर 7 तारीख दे जाती है दर्दभरी याद

हर सुबह का बस एक ही ख्याल होता था कि कैंपस में पहुंचते ही तुम्हारा चेहरा दिख जाए, तुम्हारी उस मुस्कान पर सबकुछ कुर्बान कर देने की इच्छा होती थी। अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों को तोड़कर नए नियम गढ़ने लगा था मैं, सिर्फ इस वजह से क्योंकि तुम्हारे उन सलीके से बंधे बालों के जूड़े से निकलकर तुम्हारे गाल को छू रही लट को धीमे से तुम्हें कानों के पीछे करता देख सकूं।

उन आंखों में छिपे फरेब को नहीं देख पा रहा था मैं, सोचा नहीं था कि जिसे मैं अपनी जिंदगी मानकर जिये जा रहा हूं, उसकी जिंदगी की कहानी में मेरा जिक्र तक नहीं होगा। भिक्षापात्र जैसी हो गई थीं मेरी आंखें, उन्हें बस तुम्हारा दीदार ही तो चाहिए था। पर देखों ने आशाओं से भरी उन आंखों में निराशा का बीज ऐसा फूटा कि कई महीनों तक रातें बेसाख्ता बरसती आंखों की गवाह बन गईं। तुम पास होती तो अच्छा लगता, लेकिन क्या तुम्हारा मेरे पास होना, या मेरे साथ होना मेरी जिंदगी के लिए अच्छा होता? तुम्हें जानने वाले कहते हैं, 'नहीं'... अच्छा ही हुआ जो तुमने हमारे रिश्ते को प्रेम से नहीं सींचा और वह रिश्ता मुर्झा गया। तुम्हारे जाने के बाद एकांत का आदी हो गया था मैं और उस एकांत को भंग करने वाला मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु लगा था। वह शत्रु था या मित्र, नहीं पहचान पाया था मैं... बिल्कुल वैसे ही, जैसे तुम्हें पहचानने में लगती की थी।

अंधकार में जब सारे शब्दों, सारी आकृतियों को और अधिक छिपाने के लिए कुहरा आ जाता है, उसी तरह का जीवन लगने लगा था, कुछ नजर नहीं आ रहा था, तब हमारे उस अधूरे और बेनाम रिश्ते की यादें मिटाने के लिए सब जतन कर डाले... पर तीन सालों का वह अग्रीमेंट हर महीने की 7 तारीख को उन 7 महीनों की याद दिला ही देता है...सच कहूं, मोहब्बत की इस जंग में मेरी हार नहीं हुई थी, मैं तो बस 'बच' गया था जीतने से... अगर ना बचता तो शायद जीत की दहलीज पर खड़े होकर जब अतीत की आंखों में झांकता तो खुद से नजर मिलाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाता।

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