तुम्हें पता है मैं दुनिया में सबसे ज्यादा खुशनसीब किसे समझता हूं? वो गुलाबी रंग का गुलाल, सिर्फ वही था जिसे होली पर तुम अपने गालों के चुंबन का अधिकार देती थी, वही था जो तुम्हारे गालों का स्पर्श पाकर और अधिक गुलाबी हो जाता था... सालों पुरानी होली के गुलाल के पैकेट के उस बचे हुआ कुछ ग्राम गुलाल में आज भी तुम्हारी महक है... याद है ना तुम्हें वह होली जब तुमने मुझसे वादा किया था कि तुम उसदिन जरूर मिलोगी और पूरे परिवार के साथ रंग खेलोगी लेकिन तुमने पहली बार अपनी हकीकत को आयाम दिए थे। सुबह 8 बजे ही तुम्हारे घर के दरवाजे पर पहुंच गया था, ताला लटका दिखा था पर फिर भी मन में एक उम्मीद थी कि तुम जरूर आओगी... 3 बजे तक सैकड़ों नए पुराने दोस्तों को छोड़कर वहीं खड़ा रहा... फिर एक रुपए के चार सिक्कों का जुगाड़ किया और तुम्हारी सहेली से फोन लगवाया तो पता चला कि तुम मासी के घर पर हो... शाम को साढ़े चार बजे, जब हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में लड़के नए कपड़े पहनकर मंदिर जा रहे होते थे, तब मैं उस गुलाब की खुशबू वाले गुलाल को लेकर तुम्हारी मासी के घर के बाहर खड़ा था...
ईश्वर ने उसदिन भी मेरी बात सुन ली थी। तुमको भी अहसास था कि मैं जरूर आऊंगा, उस 3x5 की बालकनी से जब तुमने मुझे देखा और वहां से जाने का इशारा किया, तभी मुझे समझ जाना चाहिए था कि वो इशारा वहां से नहीं, बल्कि तुमसे दूर जाने का था, पर सोच और समझ में सामन्जस्य तो मनुष्य तभी बैठा सकता है ना, जब उसकी आत्मा पर चढ़े हुए प्रेम के आवरण में दोतरफा निश्चछलता हो... मेरी जिद के आगे मजबूर थी तुम... आई तो गुलाल भी लगना ही था... तर्जनी से तुम्हारे गालों का वही पहला और अंतिम स्पर्श था... मेरे हाथ से उस गुलाल के पैकेट को छीनकर तुमने होली पर मेरे कोरे चेहरे से जो बदला लिया था, उस रूप को मैं आज भी स्वरूप देने की कोशिश में लगा हूं... जुम बमुश्किल 40 सेकेंड के लिए मेरे पास आई थी, और उन 40 सेकेंड में कम से कम 4 जन्मों के लिए तो मुझे खुद में डूब जाने का अवसर तो दे ही दिया था...
सड़क से उठाकर रखे गए उस गुलाल की खुशबू आज भी कागज में लपेटकर रखे गए पैकेट से आती है... कई बार उसे फेंकने की कोशिश की लेकिन हिम्मत ही नहीं जुटा पाया... शायद जब मेरे बस में ना रहे तो कोई और अपना अधिकार समझकर उसे फेंक दे लेकिन मेरे शब्दों से उस गुलाल की गुलाबी खुशबू दुनिया को हमेशा तुम्हारी याद दिलाएगी...
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