हर सुबह का बस एक ही ख्याल होता था कि कैंपस में पहुंचते ही तुम्हारा चेहरा दिख जाए, तुम्हारी उस मुस्कान पर सबकुछ कुर्बान कर देने की इच्छा होती थी। अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों को तोड़कर नए नियम गढ़ने लगा था मैं, सिर्फ इस वजह से क्योंकि तुम्हारे उन सलीके से बंधे बालों के जूड़े से निकलकर तुम्हारे गाल को छू रही लट को धीमे से तुम्हें कानों के पीछे करता देख सकूं।
उन आंखों में छिपे फरेब को नहीं देख पा रहा था मैं, सोचा नहीं था कि जिसे मैं अपनी जिंदगी मानकर जिये जा रहा हूं, उसकी जिंदगी की कहानी में मेरा जिक्र तक नहीं होगा। भिक्षापात्र जैसी हो गई थीं मेरी आंखें, उन्हें बस तुम्हारा दीदार ही तो चाहिए था। पर देखों ने आशाओं से भरी उन आंखों में निराशा का बीज ऐसा फूटा कि कई महीनों तक रातें बेसाख्ता बरसती आंखों की गवाह बन गईं। तुम पास होती तो अच्छा लगता, लेकिन क्या तुम्हारा मेरे पास होना, या मेरे साथ होना मेरी जिंदगी के लिए अच्छा होता? तुम्हें जानने वाले कहते हैं, 'नहीं'... अच्छा ही हुआ जो तुमने हमारे रिश्ते को प्रेम से नहीं सींचा और वह रिश्ता मुर्झा गया। तुम्हारे जाने के बाद एकांत का आदी हो गया था मैं और उस एकांत को भंग करने वाला मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु लगा था। वह शत्रु था या मित्र, नहीं पहचान पाया था मैं... बिल्कुल वैसे ही, जैसे तुम्हें पहचानने में लगती की थी।
अंधकार में जब सारे शब्दों, सारी आकृतियों को और अधिक छिपाने के लिए कुहरा आ जाता है, उसी तरह का जीवन लगने लगा था, कुछ नजर नहीं आ रहा था, तब हमारे उस अधूरे और बेनाम रिश्ते की यादें मिटाने के लिए सब जतन कर डाले... पर तीन सालों का वह अग्रीमेंट हर महीने की 7 तारीख को उन 7 महीनों की याद दिला ही देता है...सच कहूं, मोहब्बत की इस जंग में मेरी हार नहीं हुई थी, मैं तो बस 'बच' गया था जीतने से... अगर ना बचता तो शायद जीत की दहलीज पर खड़े होकर जब अतीत की आंखों में झांकता तो खुद से नजर मिलाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाता।
'क्वीन' कौन है? इस सवाल का जवाब तो मैं भी खोज रहा हूं। मैं तो बस इतना जानता हूं कि यह सामान्य को विशिष्ट बनाने का एक प्रयास है... कोई अलंकार नहीं... सिर्फ सच्ची भावनाएं... तुम थी तो सब कुछ था... तुम नहीं हो तो भी सब कुछ है....लेकिन तब वह 'सब कुछ' अच्छा लगता था लेकिन अब.... #क्वीन
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Thursday, April 23, 2020
Sunday, March 15, 2020
गुलाबी गुलाल की गुलाबी खुशबू
तुम्हें पता है मैं दुनिया में सबसे ज्यादा खुशनसीब किसे समझता हूं? वो गुलाबी रंग का गुलाल, सिर्फ वही था जिसे होली पर तुम अपने गालों के चुंबन का अधिकार देती थी, वही था जो तुम्हारे गालों का स्पर्श पाकर और अधिक गुलाबी हो जाता था... सालों पुरानी होली के गुलाल के पैकेट के उस बचे हुआ कुछ ग्राम गुलाल में आज भी तुम्हारी महक है... याद है ना तुम्हें वह होली जब तुमने मुझसे वादा किया था कि तुम उसदिन जरूर मिलोगी और पूरे परिवार के साथ रंग खेलोगी लेकिन तुमने पहली बार अपनी हकीकत को आयाम दिए थे। सुबह 8 बजे ही तुम्हारे घर के दरवाजे पर पहुंच गया था, ताला लटका दिखा था पर फिर भी मन में एक उम्मीद थी कि तुम जरूर आओगी... 3 बजे तक सैकड़ों नए पुराने दोस्तों को छोड़कर वहीं खड़ा रहा... फिर एक रुपए के चार सिक्कों का जुगाड़ किया और तुम्हारी सहेली से फोन लगवाया तो पता चला कि तुम मासी के घर पर हो... शाम को साढ़े चार बजे, जब हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में लड़के नए कपड़े पहनकर मंदिर जा रहे होते थे, तब मैं उस गुलाब की खुशबू वाले गुलाल को लेकर तुम्हारी मासी के घर के बाहर खड़ा था...
ईश्वर ने उसदिन भी मेरी बात सुन ली थी। तुमको भी अहसास था कि मैं जरूर आऊंगा, उस 3x5 की बालकनी से जब तुमने मुझे देखा और वहां से जाने का इशारा किया, तभी मुझे समझ जाना चाहिए था कि वो इशारा वहां से नहीं, बल्कि तुमसे दूर जाने का था, पर सोच और समझ में सामन्जस्य तो मनुष्य तभी बैठा सकता है ना, जब उसकी आत्मा पर चढ़े हुए प्रेम के आवरण में दोतरफा निश्चछलता हो... मेरी जिद के आगे मजबूर थी तुम... आई तो गुलाल भी लगना ही था... तर्जनी से तुम्हारे गालों का वही पहला और अंतिम स्पर्श था... मेरे हाथ से उस गुलाल के पैकेट को छीनकर तुमने होली पर मेरे कोरे चेहरे से जो बदला लिया था, उस रूप को मैं आज भी स्वरूप देने की कोशिश में लगा हूं... जुम बमुश्किल 40 सेकेंड के लिए मेरे पास आई थी, और उन 40 सेकेंड में कम से कम 4 जन्मों के लिए तो मुझे खुद में डूब जाने का अवसर तो दे ही दिया था...
सड़क से उठाकर रखे गए उस गुलाल की खुशबू आज भी कागज में लपेटकर रखे गए पैकेट से आती है... कई बार उसे फेंकने की कोशिश की लेकिन हिम्मत ही नहीं जुटा पाया... शायद जब मेरे बस में ना रहे तो कोई और अपना अधिकार समझकर उसे फेंक दे लेकिन मेरे शब्दों से उस गुलाल की गुलाबी खुशबू दुनिया को हमेशा तुम्हारी याद दिलाएगी...
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