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Sunday, April 4, 2021

तुम्हें कभी खुद से कमतर नहीं आंका

सुनो ना! याद है तुम्हें, उस दिन वो टीचर काफी नाराज हो गए थे। मेरा ध्यान उनकी बातों से ज्यादा तुम्हारे चेहरे पर रहता था। शायद उन्हें जलन हुई होगी, या फिर कुछ और रहा होगा... लेकिन उनका गुस्सा साफ उनके चेहरे पर झलक रहा था। पर क्या करते, वो गुस्सा मुझ पर उतार नहीं सकते थे, शायद डरते थे... उस दिन वो गुस्सा तुम पर उतरा।


मैं कैसे बर्दाश्त करता कि जो मेरी आंखों में बसा है, उसे कोई और आंख दिखाए। मैं कैसे बर्दाश्त करता कि जिसे सामने देखकर मेरी आवाज बंद हो जाती थी, उससे कोई ऊंची आवाज में बात करे। फिर वही हुआ, जिससे तुम्हारे साथ-साथ वो भी डरते थे। एक आवारा से लड़के से डर लगना स्वाभाविक भी है। 'गुरुजी अकेले ही जाते हो, नहीं पहुंचना है तो बता दो...' बस इसी लाइन से वो लाइन पर आ गए थे। 


पता है तुम्हें, मैं ये सब कैसे कर लेता था?  क्योंकि जब मन साफ सुथरा होता है ना, तो मनोबल अपने चरम पर होता है। बात जब खुद के प्रेम के अस्तित्व, उसके आत्मसम्मान और उसके फलीभूत होने की आकांक्षा लेकर एकत्व तक पहुंच जाए तो सबकुछ स्वतः दांव पर लग जाता है। मैंने कभी तुम्हें खुद से कमतर नहीं आंका, क्योंकि तुम एक स्त्री थी... एक स्त्री जो पुरुष को जन्म देती है, जन्म के बाद भी उसे जीवन देती है... पर मुझे दायित्वबोध था, मेरी अपेक्षाएं शून्य थीं और इच्छाएं आकाश पर, बस इसीलिए जब भी तुम्हारा जिक्र होता था, मुझे तुम्हारी फिक्र होने लगती थी।

#क्वीन

ये थी हमारे रिश्ते की खूबसूरती

याद है वो वक्त, जब हम कुछ सालों के लिए दूर हो गए थे? उस वक्त दोबारा मिलने की उम्मीद टूटने लगी थी। दिल सवाल करता था कि क्या रिश्तों के कुछ उसूल नहीं होते? क्या इस तरह से बीच सफर में अलग हो जाना अच्छा होता? पर इन सवालों के साथ एक सवाल और होता था कि अगर प्रेम ईश्वर का स्वरूप है तो क्या शारीरिक मिलन जरूरी था? क्या वाकई आत्मा के इस पवित्र बंधन को किसी सामाजिक रिश्ते का नाम देना जरूरी था? इन विरोधाभासी से सवालों जवाब नहीं मिले तो सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया था।


वक्त का तकाजा ही था कि कुछ ख्वाब मन में दबा लिए थे और कुछ ख्वाहिशें जिम्मेदारियों के नीचे खुद-ब-खुद दब गईं। सब हैरान थे कि अपनी अलग दुनिया में रहने वाला लड़का कैसे एक लड़की की सादगी पर मर मिटा। वो हमेशा चहकने वाला लड़का कुछ शांत रहने लगा था। कोई नहीं समझ रहा था कि ऊपर दिख रही शांति के पीछे उस लड़के के अंदर हो रहे शोरगुल से वो कितना विचलित है। 


सुनो ना, मैं जानता था कि प्रेम सभी के भाग्य में नहीं होता, लेकिन मैं ये भी जानता था कि तुम ही थी जो मुझे खोने से डरती थी। मुझसे दूर जाने के ख्वाब से ही तुम्हारी आंखों में आंसू आ जाते थे और मैं जानता था कि जो इतनी मासूम है, उससे ज्यादा प्यार कोई नहीं कर सकता। पता है, हमारे रिश्ते की खूबसूरती क्या थी? हमारी गलती न होते हुए भी हम कभी भी दूसरे की गलती को अपना मान लेते थे। यही वो वजह थी जिसने हमें फिर से मिलाया, हमारे इश्क को नए आयाम मिले...

#क्वीन

तुम्हारा प्यार और मेरा कर्तव्य

कहीं पढ़ा था कि कर्तव्य, प्रेम से बहुत ऊंचा होता है, लेकिन उस कर्तव्य की परिभाषा क्या है? क्या प्रेम में प्रेयसी के प्रति समर्पण से बड़ा कोई कर्तव्य होता है? तुमने हर बंधन तोड़ने का बीड़ा उठाया था, जाति, महजब, तथाकथित सामाजिक परंपराएं... हर बंधन तुम्हारे प्रेम के सामने कच्चे धागे सा था। और फिर तुम्हें सहेजकर रखने से बड़ा कर्तव्य क्या हो सकता था? हर कोशिश की थी मैंने तुम्हें सहेजने की, पर पता नहीं कैसे उस शख्स की अहमन्यता ने सब बदल दिया। जिस दिन एक-दूसरे का हाथ छूटा था, तब से सैकड़ों साजिशें हुईं, पर हम में से कोई किसी का हाथ नहीं थाम पाया। 


विरह की उस कड़ी के बाद जिंदगी में कई नए किस्से जुड़ सकते थे, कई इल्जाम लग सकते थे, पर हम दोनों को खुद पर गुरूर था। शायद इसीलिए हमने इल्जाम नहीं इंतजार चुना। इस इंतजार की इंतहा क्या थी, किसी को नहीं पता था, पर फिर भी हम इंतजार करते रहे। ऐसा लगता था कि सूर्योदय के बाद भी चांद जग रहा है, मेरे इंतजार में मेरा साथ दे रहा है। मान बैठा था कि वो इंतजार सदियों तक चलने वाला है। इस जन्म में ना सही तो अगले जन्म में ही सही, तुम मिलोगी और मानोगी कि हमारा प्रेम पूर्णता की पराकाष्ठा पर पहुंच गया है, लेकिन देखो ना प्रणय देव की कैसी कृपा हुई, तुम मिली और एक नई कहानी बन गई...


पता है, अगर बात अगले जन्म की होती और तुम्हारे मिलने की गांरटी होने के बावजूद मेरे पास अगर खुद से कुछ बनने का ऑप्शन होता तो मैं गौरव नहीं बनता। मैं सिर्फ एक मांग रखता कि मुझे 'तिल' बना दिया जाए, वो तिल जो तुम्हारे सबसे करीब है...वो तिल जो हर वक्त तुम्हारी खुशबू महसूस करता है... वो तिल जो सबकुछ जिसे देखकर मैं अपना दिल दे बैठा था... वो तिल जो तुम्हारे दिल के सबसे करीब था... वो तिल जो तुम्हारी हर बात सबसे पहले सुनता था... वो तिल जो ईश्वर की सबसे प्यारी कलाकारी थी... वो तिल जो मेरे चांद को हर बुरी नजर से बचाता था...

#क्वीन

वो पागल सा लड़का अब डरने लगा है

 मेरा अहंकार सर्वदा मेरे दायित्वबोध से ऊपर रहा। वो लड़का हर बात पर लोगों से भिड़ जाया करता था। क्यों किसी ने घूर दिया, क्यों किसी ने ओवरटेक कर दिया, क्यों किसी ने किसी और को कुछ कह दिया, और सबसे अहम चीज कि किसी की नजरें तुम्हारी ओर कैसे घूमीं। ऐसी सैकड़ों वजहें हर रोज मिल जाती थीं। शायद पागलपन ही था वो मेरा, लेकिन जो भी था, मेरा ही था। कभी नहीं सोचा था कि तुम दूर जाओगी, लगता था कि कोई भी हो, हमें अलग नहीं कर सकता, लेकिन कहते हैं ना, अहंकार ईश्वर का भोजन है। तुम डोर गई और मेरा अहंकार टूट गया। 


सालों तक तुमसे दूर रहने के दौरान सब बदल गया। तुम साथ नहीं थी तो किसी और का साथ भी अच्छा नहीं लगता था। एक-एक कर सब दूर हो गए। लगने लगा था कि जीवन निस्सार हो गया है। सब बदल गया था। अब कोई सामान्य तौर पर भी देखता था तो मेरी नजरें नीचे हो जाती थीं, तुम्हें कौन देख रहा है, उसका पता भी नहीं रहता था। खुद में ही कहीं खो गया था मैं। उम्मीद टूट रही थी लेकिन कोई तो था, जो कहीं हमारे एकत्व की कहानी को पूरा करने का विधान लिख चुका था।


हर शाम कांच के उस गिलास में जब तुम्हारी तस्वीर उभरते देखता था तो लगता था कि तुम बेहद करीब हो मेरे। आखिरकार उम्मीद की उस किरण को नए आयाम मिले। ईश्वर ने मिलन करा दिया। वक़्त की मार से घायल होने के बावजूद हमारा एक दूसरे के लिए प्यार कम नहीं हुआ था। पर उस प्यार के अलावा काफी कुछ बदल गया था। अब वो पागल सा लड़का जो कभी किसी से नहीं डरता था, अब डरने लगा था तुम्हें खोने से, वो सबकुछ बदल देना चाहता था, सब कुछ पाने की चाहत रखने वाला, हजारों के बीच खुद विशिष्ट सा लगने वाला वो लड़का अब सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा रहना चाहता था

#क्वीन

Saturday, January 9, 2021

तुमने मुझे मेरे लायक छोड़ा ही नहीं

 बहुत गुस्से में थी तुम उसदिन, बात तक करने को तैयार नहीं थी। गुस्सा किस पर था, ये महत्वपूर्ण नहीं थी, इंपॉर्टेंट ये था कि वो गुस्सा मुझपर उतर रहा था। हर शाम की तरह चाहता था कि घर जाने से पहले तुम एक बार मुझे तुम्हारी आंखों को ढक रहे बालों को हटाकर कानों के पीछे छिपा लेने दो... उफ्फ्फ्फ्.. तुम्हारा गुस्सा... तुमने साफ कह दिया था कि मेरी चीज को हाथ मत लगाना। पर मैं भी क्या करता, जन्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय और तुम्हारी 'सेवा' के लिए शूद्र रूप में अवतरित हुए इस व्यक्ति ने तुमसे बहुत कुछ सीखा था, तुम्हारे बेवजह के गुस्से को झेलने की ताकत देने वाली औषधि तुमने दी ही नहीं थी, थोड़ा गुस्सा मुझे भी आ गया और कह दिया कि अब किसी शाम पार्क में बैठकर कहना कभी कि तकिया (मेरी बांह) दे दो...


तुम पूछती थी ना कि मैं तुम्हें इतना प्यार क्यों करता हूं... क्योंकि तुमने मुझे मेरा रहने ही नहीं दिया था। याद है ना वो जवाब... 'वो तकिया तो मेरी ही है, जो तुम्हारा हो, वो मत देना'... तुमने जिस अधिकार के साथ उस वक्त वो कहा था ना, उसदिन के बाद से आज तक अपने शरीर का एक हिस्सा, अपने जीवन का एक पल, अपने मन से एख बिंदु... खुद की तलाश तक में न लगा पाया। कुछ नहीं बचा मेरा... 12 सालों से हर पल के एक हिस्से में तुम्हारे साथ बिताए वक्त को जीने की कोशिश करता हूं, तो अगले पर उसे भुलाने की... तुम में ही डूबकर रह गया हूं, खुद के लिए कुछ बचा ही नहीं...


अब जब कभी साथ बिताए उन लम्हों में अकेले होता हूं, तो बहुत सहज महसूस करता हूं, लगता है कि सबकुछ है... अकेलेपन में 'पितामह' जैसा महसूस करता हूं... लेकिन अब किसी को उन लम्हों में शामिल नहीं होने देना चाहता, कोई आने की कोशिश करता है तो बहुत असहज सा हो जाता हूं। पता है ये अहसास कैसा होता है? बिल्कुल वैसा ही, जब हॉस्टल में रहता था, अपने कमरे में सब अस्त-व्यस्त रहता था, लेकिन फिर भी नींद अपने कमरे में ही आती थी। पर उस कमरे में जब कोई अजनबी आ जाता था तो खुद के सबसे चहेते कमरे को देखकर खुद पर शर्म आ जाती थी... बिल्कुल वैसा ही अब महसूस करता हूं... 

मेरे लिखने से तुम डरती थी ना?

तुम नहीं चाहती थी कि मैं कुछ लिखूं, किसी से तुम्हारे बारे में बात करूं, उन खुशियों भरे पल के अहसास किसी और को बताऊं... तुमने खूब मना किया, इतना ज्यादा कि ऐसा लगने लगा जैसे 'लिखना', तुमसे जुड़ी बातें, तुम्हारे साथ बीते खुशनुमा लम्हें किसी से भी शेयर करना कोई अपराध हो। इश्क में सब ठीक लग रहा था, सब सही लग रहा था। लगता था कि तुम नहीं चाहती कि हमारी 'निजता' पर कोई आघात हो, शायद इसीलिए रोकती हो, पर असल वजह तो कुछ और ही थी ना?


तुम पहले से जानती थी ना कि अगर मैंने सबकुछ लिखने, या 'भावों' को शेयर करने की आदत डाल ली तो तुम जो मेरे तब के भविष्य में करने वाली थी, वो भी सबके सामने आ जाएगा? तुम डरती थी ना कि उन बेतुके बहानों को दुनिया कभी इश्क के 'एकत्व' में रुकावट नहीं मानेगी? तुम्हें डर था ना कि सहीं मेरे अक्षरों से निकला सच सारे झूठों को बेनकाब न कर दे? 


पर सुनो ना, अक्षर का अर्थ जानती हो तुम? अक्षर यानी जिसका कभी क्षरण न हो सके यानी परम् ब्रह्म परमात्मा और मैं कहता भी था ना कि मेरा प्रेम हमेशा यूं ही बना रहेगा, बिल्कुल ब्रह्म की तरह... अब ये अक्षर उस निर्गुण ब्रह्म को सगुण रूप दे रहे हैं। विश्वास मानो! सालों पहले दोपहर के तीन बजे किए गए उस वादे को पूरा करने के लिए सैकड़ों रातें 3 बजे का वक्त देखे बिना यूं ही आंसुओं संग बिता दी हैं... 

Thursday, April 23, 2020

हर 7 तारीख दे जाती है दर्दभरी याद

हर सुबह का बस एक ही ख्याल होता था कि कैंपस में पहुंचते ही तुम्हारा चेहरा दिख जाए, तुम्हारी उस मुस्कान पर सबकुछ कुर्बान कर देने की इच्छा होती थी। अपने ही द्वारा बनाए गए नियमों को तोड़कर नए नियम गढ़ने लगा था मैं, सिर्फ इस वजह से क्योंकि तुम्हारे उन सलीके से बंधे बालों के जूड़े से निकलकर तुम्हारे गाल को छू रही लट को धीमे से तुम्हें कानों के पीछे करता देख सकूं।

उन आंखों में छिपे फरेब को नहीं देख पा रहा था मैं, सोचा नहीं था कि जिसे मैं अपनी जिंदगी मानकर जिये जा रहा हूं, उसकी जिंदगी की कहानी में मेरा जिक्र तक नहीं होगा। भिक्षापात्र जैसी हो गई थीं मेरी आंखें, उन्हें बस तुम्हारा दीदार ही तो चाहिए था। पर देखों ने आशाओं से भरी उन आंखों में निराशा का बीज ऐसा फूटा कि कई महीनों तक रातें बेसाख्ता बरसती आंखों की गवाह बन गईं। तुम पास होती तो अच्छा लगता, लेकिन क्या तुम्हारा मेरे पास होना, या मेरे साथ होना मेरी जिंदगी के लिए अच्छा होता? तुम्हें जानने वाले कहते हैं, 'नहीं'... अच्छा ही हुआ जो तुमने हमारे रिश्ते को प्रेम से नहीं सींचा और वह रिश्ता मुर्झा गया। तुम्हारे जाने के बाद एकांत का आदी हो गया था मैं और उस एकांत को भंग करने वाला मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु लगा था। वह शत्रु था या मित्र, नहीं पहचान पाया था मैं... बिल्कुल वैसे ही, जैसे तुम्हें पहचानने में लगती की थी।

अंधकार में जब सारे शब्दों, सारी आकृतियों को और अधिक छिपाने के लिए कुहरा आ जाता है, उसी तरह का जीवन लगने लगा था, कुछ नजर नहीं आ रहा था, तब हमारे उस अधूरे और बेनाम रिश्ते की यादें मिटाने के लिए सब जतन कर डाले... पर तीन सालों का वह अग्रीमेंट हर महीने की 7 तारीख को उन 7 महीनों की याद दिला ही देता है...सच कहूं, मोहब्बत की इस जंग में मेरी हार नहीं हुई थी, मैं तो बस 'बच' गया था जीतने से... अगर ना बचता तो शायद जीत की दहलीज पर खड़े होकर जब अतीत की आंखों में झांकता तो खुद से नजर मिलाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाता।