सुनो ना! याद है तुम्हें, उस दिन वो टीचर काफी नाराज हो गए थे। मेरा ध्यान उनकी बातों से ज्यादा तुम्हारे चेहरे पर रहता था। शायद उन्हें जलन हुई होगी, या फिर कुछ और रहा होगा... लेकिन उनका गुस्सा साफ उनके चेहरे पर झलक रहा था। पर क्या करते, वो गुस्सा मुझ पर उतार नहीं सकते थे, शायद डरते थे... उस दिन वो गुस्सा तुम पर उतरा।
मैं कैसे बर्दाश्त करता कि जो मेरी आंखों में बसा है, उसे कोई और आंख दिखाए। मैं कैसे बर्दाश्त करता कि जिसे सामने देखकर मेरी आवाज बंद हो जाती थी, उससे कोई ऊंची आवाज में बात करे। फिर वही हुआ, जिससे तुम्हारे साथ-साथ वो भी डरते थे। एक आवारा से लड़के से डर लगना स्वाभाविक भी है। 'गुरुजी अकेले ही जाते हो, नहीं पहुंचना है तो बता दो...' बस इसी लाइन से वो लाइन पर आ गए थे।
पता है तुम्हें, मैं ये सब कैसे कर लेता था? क्योंकि जब मन साफ सुथरा होता है ना, तो मनोबल अपने चरम पर होता है। बात जब खुद के प्रेम के अस्तित्व, उसके आत्मसम्मान और उसके फलीभूत होने की आकांक्षा लेकर एकत्व तक पहुंच जाए तो सबकुछ स्वतः दांव पर लग जाता है। मैंने कभी तुम्हें खुद से कमतर नहीं आंका, क्योंकि तुम एक स्त्री थी... एक स्त्री जो पुरुष को जन्म देती है, जन्म के बाद भी उसे जीवन देती है... पर मुझे दायित्वबोध था, मेरी अपेक्षाएं शून्य थीं और इच्छाएं आकाश पर, बस इसीलिए जब भी तुम्हारा जिक्र होता था, मुझे तुम्हारी फिक्र होने लगती थी।
#क्वीन